Thursday, November 25, 2010

अपनेपन का मतवाला’

अपनेपन का मतवाला’


अपनेपन का मतवाला था भीड़ों में भी मैं खो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता मैं हो न सका
देखा जग ने टोपी बदली
तो मन बदला, महिमा बदली
पर ध्वजा बदलने से न यहाँ
मन-मंदिर की प्रतिमा बदली
मेरे नयनों का श्याम रंग जीवन भर कोई धो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता मैं हो न सका
हड़ताल, जुलूस, सभा, भाषण
चल दिए तमाशे बन-बनके
पलकों की शीतल छाया में
मैं पुनः चला मन का बन के
जो चाहा करता चला सदा प्रस्तावों को मैं ढो न सका
चाहे जिस दल में मैं जाऊँ इतना सस्ता में हो न सका
दीवारों के प्रस्तावक थे
पर दीवारों से घिरते थे
व्यापारी की ज़ंजीरों से
आज़ाद बने वे फिरते थे
ऐसों से घिरा जनम भर मैं सुख शय्या पर भी सो न सका
चाहे जिस दल में मिल जाऊँ इतना सस्ता मैं हो न सका

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