Thursday, November 25, 2010

सोचते ही सोचते

यह सोचते ही सोचते सब उम्र पूरी हो गई।
इंसान की मुस्कान क्यों आधी-अधूरी हो गई।।
देखिए हर भाल पर चिन्ता की रेखा खिंच रहीं।
नफरत के उपवन सिंच रहे और नागफनियॉं खिल रहीं।।
इंसान से इंसान की अब क्यों है दूरी हो गई।
यह सेचते ही सोचते
कुछ तृस्त हैं कुछ भ्रष्ट हैं कुछ भ्रष्टता की ओर हैं।
हो रहीं गमगीन संध्यायें सिसकती भोर हैं।।
वह सुहागिन मॉंग क्यों कर बिन सिंदूरी हो गई।।
यह सोचते ही सोचते
इंसान पशुता पर उतारू हो रहा नैतिक पतन।
यह देख कर मॉं भारती के हो रहे गीले नयन।।
प्रेम की क्यों भावना भी विष धतूरी हो गई।।

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